सांध्यकालीन स्वर्णिम छटा में शीतल बयार तन के साथ ही मन को भी ठंडक दे रही है। अलकनंदा की कल-कल की चिड़ियों के कलरव के साथ संगीतमय प्रतिस्पर्धा चल रही है। पहाड़ों का नीलापन आसमान की नीलिमा के साथ प्रेमोत्सव मना रहा है। सीढ़ीदार खेत एक दूसरे को सहारा देकर ऊपर उठा रहे हैं। हरे भरे देवदार और बांज बुरांस के लाल फूलों को ललचाई नज़रों से देख रहे हैं और बुरांस अपनी ही मादक सुगंध में मदहोश हुआ जा रहा है.
आह! प्रकृति का ये अप्रतिम सौन्दर्य!
सर्पीली पगडंडियों से गुजरते हुए कल्पनाओं के भवसागर में तरता उतरता रामेश्वर इस नैसर्गिक सौन्दर्य पर मुग्ध हुआ जा रहा था, उसे यहाँ के कंकड़-पत्थरों में भी खूबसूरत नक्काशी दिखाई दे रही थी, नौले - खोलों के मीठे पानी ने उसे आकंठ तृप्ति से भर डाला था। उसके ह्रदय से कवितायेँ फूट रही थी.
इतनी रयिसियत के बावजूद भी यहाँ जवानियाँ लगभग गायब हैं, इंसानों के नाम पर सिर्फ कुछ बूढ़ी ज़िंदगियाँ कसमसाती साँसे ले रही हैं।
इंसान ही न रहे तो प्रकृति के इन उपहारों का आनंद कौन उठाये?
बिन बच्चों के आँगन जैसा सूनापन है इन पहाड़ों में और ये जंक लगी कुण्डियाँ, टूटे-जर्ज़र दर-ओ-दीवार, उदास तिबारियां सब मिलकर गवाही दे रहे हैं, कभी ये भी इतराया करते थे। बंजर पड़ गए खेतों में कभी हाड़-तोड़ मेहनत ज़रूर हुई है। ये सब लावारिस हाल में देखकर उसका जी फटा जा रहा था। वो उजड़े वीरान एक-एक दरवाज़े खिड़की से लिपट कर रोना चाहता था, हरेक आँगन को छू कर बता देना चाहता था कि अब तुम अकेले नहीं हो मैं लौट आया हूँ।
हमेशा हमेशा के लिए!
बुधवार, 21 मार्च 2012
मंगलवार, 6 मार्च 2012
लोकतंत्र लौट आया है
कि अबके खूब लहलहाएगी फसल
उसके खेत में
कि उसे आश्वासन मिला है
बादल से
खूब बरसने का
सूरज से
धूप खिलखिलाने का
फिजाओं से
खुशहाली लाने का
कि अबके फिर लौटा है
लोकतंत्र
उसके द्वार पर
उसकी आँखों में सपने हैं
कि अब जीवन संवरेगा
उसके बच्चे का
कि वो भी तारतम्य बैठा पायेगा
आधुनिक युग के साथ
कि उसे आश्वासन मिला है
धरती के देवताओं से
टैबलेट, लैपटॉप और
मुफ्त पढाई का
कि अबके फिर लौटा है
लोकतंत्र
उसके द्वार पर
उसकी आँखों की गहराइयों में बसी
सदियों की पीड़ा से सराबोर नमी
आश्वस्त है
कि हमे ही धोना है आखिर
एहसास
उसकी आँखों के धुंधलेपन का
कि अबके फिर लौटा है
लोकतंत्र
उसके द्वार पर
हर बार कि तरह ही !
गुरुवार, 1 मार्च 2012
प्यारी मारिया



मारिया? यहाँ, वो भी इस हाल में?
कैसे? उसे तो अस्पताल में होना चाहिए था, वो तो आई सी यू में थी, फिर ये..?
मैंने डरते-डरते फिर पूछा, मारिया.....?
उसने बहुत ही उदास स्वर में कहा...मम्मा!
उस अँधेरी रात में उसका पीला चेहरा मुझे साफ़-साफ़ दिखाई दे रहा था। उसकी आवाज सुनकर मै सब कुछ भूल गयी, मैंने उसे गले लगाना चाहा पर मेरे छूने से पहले ही वो जमीन पर गिर पड़ी। मैं बहुत जोर से चिल्लाई, मारिया...........!
अपनी ही आवाज को अपने कानो में मैंने जोर से सुना और मेरी नींद खुल गयी। आह! मैंने चैन की सांस ली, शुक्र है कि ये सपना था। रजाई कम्बल एक ओर पड़े थे और मैं दूसरी ओर। मुझे जबरदस्त ठण्ड लग रही थी।
आज ही अस्पताल से लौटी अपनी प्यारी मारिया के सिर पर मैंने धीरे से हाथ फेरा और खुद को सिकोड़कर फिर से रजाई के हवाले कर दिया.
शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2012
आज की बात
जीवन में हमें संतुष्टि कभी मिलती है?
हम सभी मोह-माया के संजाल में ऐसे जकड़े हुए हैं, की उससे बाहर निकल ही नहीं पाते। एक तृप्ति पूर्ण होते ही दूसरी अभिलाषा जोर मारने लगती है। अपनी इच्छाओं के वशीभूत हम इंसान सिर्फ कठपुतली की तरह हिचकोले खाते हुए एक दिन इस दुनिया से अपनी कई अधूरी ख्वाहिशों के साथ विदा हो जाते हैं। ये इच्छाएं और हमारी विषय-कामना ये सब उस शेर की तरह हैं, जिस पर यदि हम सवार होकर उसे नियंत्रित न करें तो समय से पहले ही हमारी इहलीला की इतिश्री निश्चित है। प्रतिपल द्वेष, लालच, ईर्ष्या और क्रोधाग्नि हमारे शरीर को रोगों का घर बनाने के लिए ईंट-गारे का काम करते हैं और उस पर, जो हमारे पास है, उसके प्रति असंतुष्टि का भाव हमारे मस्तिष्क को ठोकता-पीटता रहता है, जिस कारण हम तन के साथ ही मन से भी निरोगी नहीं रह पाते और रोगी व्यक्ति दीर्घायु कैसे हो सकता है?अपनी इच्छाओं - अभिलाषाओं का दमन न कर हम खुद इनके द्वारा कुचले जाते रहते हैं और हमे इसका एहसास तब तक नहीं होता जब तक की हम स्वयं अनिष्ट को अपनी तरफ आता नही देखते...........आश्चर्य तो तब होता है जब इन सब बातों से भिज्ञ और भद्र व्यक्ति भी मौके-बे-मौके विचारोत्तेजित हो जाता है, स्वयं से नियंत्रण खो बैठता है और वही व्यवहार कर डालता है जो वांछित के प्रतिकूल हो! तो कैसे एक सामान्य व्यक्ति खुद को पूर्ण आयु के साथ सुखी जीवन जिलाए?
अपने बचपन के दिनों से ही मैंने अपने आसपास के समाज में सदा तनाव का वातावरण पाया, उसका मेरे मन-मस्तिष्क पर नकारात्मक प्रभाव रहा, किन्तु मेरे पारिवारिक माहौल ने मुझमे सामाजिकता का बीज बोया था, और उस बीज ने मेरी बढती वय के साथ - साथ थोडा-बहुत आकार ग्रहण किया जिसकी छाया से आज मै कई तरह के कष्टों की धूप से बच पाती हूँ लेकिन क्रोध-द्वेष-लालच के पंजों से मैं खुद को सदैव बचा पाऊं, इतनी गुण संपन्न मै कभी न हो सकी। किन्तु जैसा मैंने ऊपर कहा की हम तब तक नहीं चेतते जब तक अनिष्ट को अपने निकट आते नहीं देखते, इसलिए आज जब मै यह महसूस करने लगी हूँ, की मेरा शरीर मेरी आयु से अधिक बूढा हो गया है, मैने खुद को समेटने की कोशिश शुरू कर दी है. कितनी सफल हो पाउंगी यह तो मेरी दृढ़ता पर निर्भर रहेगा, किन्तु मैं समझती हूँ की अच्छे साहित्य का अध्ययन और अंतर्मनन ये दोनों ही क्रियाएं (योग जो सर्वोत्तम है, को अपने जीवन का हिस्सा बनाना मुझे कभी आ सकेगा इस पर मुझे संशय है) मेरे इस निश्चय में मेरे लिए सहायक सिद्ध होंगी.
आमीन!
सोमवार, 13 फ़रवरी 2012
रत्नों की खान का ग़ुम हो जाना..............
अक्सर ऐसा क्यूँ होता है की इंसान के चले जाने के बाद ही उसके बारे में ज्यादा जानने को मिलता है, ..............(मीडिया भी तभी सक्रिय होता है.)
विद्या सागर नौटियाल जी के बारे में काफी कुछ सुना था, उनकी कृतियाँ-उनके साहित्य की प्रशंसा, उनका राजनैतिक योगदान, उनकी वामपंथी विचारधारा के बारे में गाहे-ब-गाहे पढने-सुनने को मिलता रहता था, ऐसे मौकों पर उन्हें साक्षात देखने की प्रबल इच्छा होती, पर समय ने कहाँ किसी की राह देखी है, अब ये कभी संभव न हो सकेगा!
कल अचानक उनके चले जाने की खबर से झटका लगा, लगा की उत्तराखंड का एक और हीरा सदा के लिए खो गया मगर आज जब अखबारों में ब्लोगों में उनके बारे में इतना कुछ पढ़ा तो मालूम हुआ की एक हीरा नहीं रत्नों की खान ही खो गयी है, ऐसा ही दुःख गिर्दा के जाने पर भी महसूस हुआ था..................!!
गुरुवार, 9 फ़रवरी 2012
'अतिक्रमण'
![]() |
atikraman........ |
शनिवार, 4 फ़रवरी 2012
वो हंसी ही है!!
दर्द-ओ-ग़म जो भुला
दे
वो हंसी ही है
वो हंसी ही है
जो खजाना है ख़ुशी का
फैलती छूत सी जो
वो हंसी ही है
भूल जा दर्द दिल के
गा न अब ग़म के तराने
खोज ले आज
खिलखिलाने के बहाने
हम हँसे तो साथ में जो भी हो
वो भी हंसेगा
और हंसी का कारवां
बढ़ता रहेगा
हैं हंसी में खुशबुएँ गुलशन की सारी
है हंसी में स्वाद सारे व्यंजनों का
इक हंसी जो मुफ्त में मिलती है हमको
काट सकती है ये सारे रोग तन के
ज़िन्दगी जितनी भी हो
वो कम ही कम है
इसलिए
दो-चार दिन हंस ले हंसा ले !!!!!
वो हंसी ही है
वो हंसी ही है
जो खजाना है ख़ुशी का
फैलती छूत सी जो
वो हंसी ही है
भूल जा दर्द दिल के
गा न अब ग़म के तराने
खोज ले आज
खिलखिलाने के बहाने
हम हँसे तो साथ में जो भी हो
वो भी हंसेगा
और हंसी का कारवां
बढ़ता रहेगा
हैं हंसी में खुशबुएँ गुलशन की सारी
है हंसी में स्वाद सारे व्यंजनों का
इक हंसी जो मुफ्त में मिलती है हमको
काट सकती है ये सारे रोग तन के
ज़िन्दगी जितनी भी हो
वो कम ही कम है
इसलिए
दो-चार दिन हंस ले हंसा ले !!!!!
शनिवार, 21 जनवरी 2012
माँ जब भी मुझे बुलाती है .................!
माँ जब भी मुझे बुलाती है .................
बस सबसे छुपके, चुपके से
अंखियों से नीर बहाती हूँ
लाचार नहीं मैं फिर भी यूँ
बेचारी हो रह जाती हूँ
दिल को कितना ही कड़ा करूँ
ये मन ही मन घुलता रहता
हो मोम का जैसे बुत कोई
जलता रहता- गलता रहता
सब भूल भी जाऊं मैं लेकिन
माँ का अर्पण कैसे भूलूं
माँ के आगे- पीछे बीते
उस बचपन को कैसे भूलूं
अब बात नहीं मेरे बस में
मै टुकड़े- टुकड़े टूट चुकी
तेरी ममता के हिस्से के
टुकड़े को मैं खुद लूट चुकी
खुशियों की बस्ती में रहकर
बस यादों से घबराती हूँ
कितने द्वंदों- प्रतिद्वंदों की
लपटों में मैं घिर जाती हूँ
माँ जब भी मुझे बुलाती है .................
बस सबसे छुपके, चुपके से
अंखियों से नीर बहाती हूँ
लाचार नहीं मैं फिर भी यूँ
बेचारी हो रह जाती हूँ
दिल को कितना ही कड़ा करूँ
हो मोम का जैसे बुत कोई
जलता रहता- गलता रहता
सब भूल भी जाऊं मैं लेकिन
माँ का अर्पण कैसे भूलूं
माँ के आगे- पीछे बीते
उस बचपन को कैसे भूलूं
अब बात नहीं मेरे बस में
मै टुकड़े- टुकड़े टूट चुकी
तेरी ममता के हिस्से के
टुकड़े को मैं खुद लूट चुकी
खुशियों की बस्ती में रहकर
बस यादों से घबराती हूँ
कितने द्वंदों- प्रतिद्वंदों की
लपटों में मैं घिर जाती हूँ
माँ जब भी मुझे बुलाती है .................
मंगलवार, 10 जनवरी 2012
जब भी झाँका है तेरी इन डूबती आँखों में कभी
हर बखत एक ही मंजर नज़र आया है मुझे
इक शहर हो कोई उजड़ा जैसे
हो उदासी का बसर तनहा जैसे
एक वीरानगी का आलम है तेरी आँखों में
कैसा अवारापन है तेरी आँखों में
खुद को किस बोझ तले दफनाया तूने
अपने अरमानों को क्यूँकर जलाया तूने
क्यूँ नहीं ज़िन्दगी को कोई रंग देती
क्यूँ भला खुद को भुलाया तूने
क्यूँ पकड़ रखा है तूने बीते कल का आँचल
गौर से देख तेरे पास 'आज' आया है..................!!!
हर बखत एक ही मंजर नज़र आया है मुझे
इक शहर हो कोई उजड़ा जैसे
हो उदासी का बसर तनहा जैसे
एक वीरानगी का आलम है तेरी आँखों में
कैसा अवारापन है तेरी आँखों में
खुद को किस बोझ तले दफनाया तूने
अपने अरमानों को क्यूँकर जलाया तूने
क्यूँ नहीं ज़िन्दगी को कोई रंग देती
क्यूँ भला खुद को भुलाया तूने
क्यूँ पकड़ रखा है तूने बीते कल का आँचल
गौर से देख तेरे पास 'आज' आया है..................!!!
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