सोमवार, 5 अप्रैल 2021

 

“....प्लेग किसी का लिहाज या इज्जत नहीं करती थी और उसके निरंकुश शासन में गर्वनर से लेकर मामूली अपराधी भी एक-सी सजा भुगत रहा था और जेल के इतिहास में शायद पहली बार निष्पक्ष रूप से इन्साफ हो रहा था।

प्लेग भेद-भावों को समतल कर रही थी, इसे दूर करने के लिए अधिकारियों ने छोटे-बड़े का वर्गीकरण किया... ”

प्लेगः अल्वेयर कामू

अनुवादकः अनुराधा श्रीवास्तव

प्रकाशन सर्वोदय साहित्य संस्थान, दिल्ली

कोरोना का ये दौर, जैसे इस किताब में दिए कथ्यों की पुनरावृत्ति है! आज शायद इसलिए भी इस किताब की प्रासंगिकता पाठकों के लिए बढ़ जाती है। 1947 में मूल रूप से French में लिखी गयी ‘ला पेस्ट’ का यह हिन्दी अनुवाद हम हिन्दी के पाठकों के लिए किसी अनुग्रह से कम नहीं है।  

कोरोना के इस दौर में हमने कोरोना मरीज़ों के साथ ही न जाने कितने डाॅक्टरों, नर्सों और सेवा में लगे लोगों - तीमारदारों को पूरी ईमानदारी से जुटते हुए देखा, उनमें से कितनों ही को जान गंवाते देखा। कोरोना और ज़िन्दगी के इस महायुद्ध में ज़िन्दगी के पक्ष में न जाने कितने ही वाॅलण्टियर्स ने खुद को समर्पित किया। इस दौर में सरकारी फरमानों की बाढ़ आई तो कहीं नाफरमानी हुई। लाॅक डाउन में सड़कों पर पैदल चलने वालों की मजबूरियों को देखकर दिल ज़ार-ज़ार भी हुआ। 

इन सब मानवीय संवेदनाओं को ‘प्लेग’ में जिस तरह से लिखा गया है, उसे ठीक वैसे ही इस दौर में हमने जीकर महसूस किया है। परिस्थितियों के प्रति मनुष्य का व्यवहार हमेशा लगभग एक जैसा रहा है। किताब में हम पढ़ते हैं कि किस तरह पादरी, फादर पैनेलो चर्च में उमड़ी भीड़ को परिस्थितियों को धार्मिक चश्में से दिखाने की कोशिश करता है, जो बाद में खुद भी प्लेग से मर जाता है, इस बीच के घटनाक्रमों में वह ज़रूरी भूमिका में है, लेकिन धर्म और बीमारी का काॅकटेल यहाँ भी मिलता है, यह दीगर बात है कि धार्मिक द्वेषों को जिस तरह कोरोना के दौर में हमने अपने चरम तक पहुँचते देखा, उस की झलक ‘प्लेग’ में नहीं मिली, शायद लेखक का इस ओर ध्यान ही न गया हो या कि उन्हें ऐसा कोई अनुभव ही न मिला हो या हो सकता है कि, लेखक नकारात्मक परिप्रेक्ष्यों को छोड़ देना चाहते हों! 

कहा जाता है कि, अल्वेयर कामू ने ‘प्लेग’ के लिए बहुत अध्ययन किया था और ओरान शहर को पहले भी महामारियों ने अपना निवाला बनाया था, जिसके निशान भी इस किताब में होंगे, लेकिन हमें ये आज की कहानी लगती है। प्लेग के माध्यम से डाॅक्टर बर्नार्ड रियो के रूप में एक आदर्श चिकित्सक का चरित्र हमारे सामने रखा गया है, जो व्यवस्था को चुनौती देता है, अपनी व्यावसायिक ज़िम्मेदारियों को अपने व्यक्तिगत जीवन की परेशानियों से ऊपर रखते हुए वह पूरी शिद्दत से जूझता है लेकिन कभी निराश नहीं दिखता। किताब में सभी चरित्र अपनी-अपनी विशेषताएं, आकांक्षाएं, लक्ष्य और मनोदशाएं लिए हैं, लेकिन प्लेग से उपजे हालातों ने सभी को मजबूर कर दिया है, जिससे उनके व्यवहार बदलते लगते हैं , ये बदले चरित्र ही पाठक के मन में कौतूहल पैदा करते हैं। इस किताब को पढ़ते हुए, शुरू में ही ओरान शहर का चित्र आंखों में खिंच जाता है और फिर धीरे-धीरे प्लेग से जूझते बदनों पर उभरती गिल्टियों, फैलते बुखार और खून की उल्टियों से सना ओरान का चित्र डराने लगता है। लम्बे संघर्ष के बाद एक बार लगने लगता है कि, प्लेग ख़त्म हो रहा है, चूहे फिर से गलियों में दौड़ने लगे हैं, उम्मीदें हिलौरे मारने लगी हैं, लोग रोशन सड़कों पर चहलकदमी करने लगे हैं, लेकिन ठीक तभी कथानक का एक मजबूत स्तम्भ प्लेग से ढह जाता है, ‘तारो’। प्लेग फिर से नये रूप में सामने आता है।

उधर, लौटते प्लेग की खुशी में शहर झूम रहा है, लेकिन वह यह नहीं जानता कि, प्लेग का कीटाणु मरता नहीं है, वह छिपा रहता है तहखानों में, सन्दूकों में, किताबों में किसी मौके की तलाश में- ऐसा मानना है डाॅ0 बर्नार्ड रियो का! 

इससे ज़्यादा जानना है तो किताब पढ़िए..........प्लेग!

सुनीता मोहन


शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2021

चार्ली चैप्लिनः श्री गीत चतुर्वेदी
संवाद प्रकाशन
‘चार्ली चैप्लिन’! दर्द, अभाव, प्रेम, घृणा, संघर्ष और सफलता के चरमोत्कर्ष को जीते हुए इंसान बने रहने की कहानी!

इस किताब को पढ़ने से पहले मैने शायद ही कभी चार्ली की कोई फिल्म पूरी देखी हो, हाँ उसके बाद जरूर देखीं। बहुत कम लोग होंगे जिनके लिए चार्ली चैप्लिन अनजाना चेहरा होगा। चार्ली का नाम सुनते ही उनका ब्लैक एण्ड व्हाईट पोस्टर मेरी आंखों में उतर आता है। हर दौर मेें प्रासंगिक रहे चार्ली के बारे में मुझे ज्यादा कुछ मालूम नहीं था, सिवाय इसके, कि वो महान एक्टर मूक हास्य फिल्मों का शहंशाह हुआ करता था जो अपनी माँ के बीमार हो जाने के चलते छोटी सी उम्र में ही पहली बार स्टेज पर आकर दर्शकों की तालियां बटोर ले गया और फिर कभी नहीं रूका। लेकिन गीत चतुर्वेदी जी ने अपनी इस किताब में चार्ली और उनके जीवन से जुड़े पहलुओं को इतने करीने से सिलसिलेवार पेश किया है कि, लगता है, हम चार्ली को काफी करीब से जानते हुए, उनके साथ उसी दौर को जी रहे हैं। किताब में, हर अगले कदम वो सारे संघर्ष टूटे काँच के टुकड़ों की तरह बिखरे पड़े मिलते हैं, जिन पर चलकर  चार्ली जख्मी तो हुए लेकिन खुद को टूटने नहीं दिया। किताब में उनकी फिल्मों के जिक्र और उन फिल्मों के बनने-बनाने के किस्से हैं, चार्ली की प्रेमाकांक्षाओं की कहानियाँ हैं।

इतिहास गवाह है कि, सत्ता अक्सर अपने मुखर आलोचक के प्रति अनुदार रही है, चाहे वह सत्ता लोकतन्त्र के जामे में ही क्यों न हो। वह हर उस कलाकार, जो सत्ता की बदनीयती को अपनी कला के माध्यम से सामने लाने की कोशिश करता है, को अपने बनाये कानूनी दांव-पेंचों में उलझा कर कमजोर करती है, वह अपने लोलुप प्रचार तंत्र की मदद से अविवेकी भीड़ का समूह तैयार करती है, जो उसकी पोषित अराजकता का समर्थन करता है। यहूदियों के समर्थन में दिए गये अपने स्टेटमेण्ट्स और द ग्रेट डिक्टेटर की स्पीच जैसी इन्कलाबी गतिविधियों के चलते, अमेरिका में वही दाँव चार्ली पर भी आजमाए गये थे। मीडिया आज भी वही भूमिका निभा रहा है, जो उस दौर में निभा रहा था। किताब से पता चलता है कि, चार्ली की सहानुभूति हर उस आदमी के साथ थी, जो सम्पन्नों का सताया था, यही कारण था कि, वे हिटलर की नीतियों के विरोधी थे और यहूदियों के लिए उनके मन में सहानुभूति थी, मीडिया ने उन्हें कम्यूनिस्ट कहना शुरू कर दिया तो अमेरिका की भीड़ ने उनका बायकाॅट करना! उन्होंने आजीवन अमेरिकी नागरिकता नहीं ली, वो खुद को विश्व नागरिक मानते थे।  

“आपने इस दुनिया को अकूत खुशियाँ और ढेर सारे ठहाके दिये, इसके बावजूद आपको रूखी और कृतघ्न अमेरिकी प्रेस को झेलना पड़ रहा है, एक कलाकार के रूप में आप क्या महसूस करते हैं, चार्ली?” कवि और पत्रकार जिम एजी के इस सवाल के उत्तर में चार्ली की आँखों में आँसू थे और अन्ततः उन्होने अमेरिका को अलविदा कह दिया । उन्होने स्विटज़रलैण्ड को अपना ठौर चुना।

चार्ली चैप्लिन ने सन् 1977, क्रिसमस डे के दिन आखिरी सांस ली, लेकिन सच तो ये है कि, चार्ली चैप्लिन मरा नहीं करते, वो हमेशा रहते हैं और दुनिया को ‘लायक’ बनाये रखने के लिए अपनी कला को साधन बनाते हैं।
शुक्रिया, श्री गीत चतुर्वेदी।
शुक्रिया संवाद प्रकाशन। 




मंगलवार, 22 दिसंबर 2020

भयमुक्त बुग्याल तथा अन्य कहानियाँ : श्री नन्द किशोर हटवाल

 

पिछले दिनों नन्द किशोर हटवाल जी की किताब ‘भयमुक्त बुग्याल तथा अन्य कहानियाँ’ पढ़ी। अपने लेखन की श्रंखला में एक और बेहतरीन रचना को जोड़ने के लिए श्री नन्द किशोर हटवाल जी को हार्दिक बधाई और धन्यवाद हम पाठकों को विशेषकर उत्तराखण्ड वासियों को ये उत्कृष्ट कृति भेंट करने के लिए। 

‘भयमुक्त बुग्याल’ अपने शीर्षक और आवरण से ही सम्मोहित करना शुरू कर देती है। हरेक कहानी सामाजिक सरोकारों का ही प्रतिबिम्ब लगती हैं, जैसे हम अपनी ही आंखो से सब होता देख रहे हैं, वही रूढ़ियाँ, वही मानसिक कमज़ोरियाँ, वही राजनीति, वही सामाजिक विघटन! सब कुछ वही जिसे हम महसूस करते आ रहे हैं, लेकिन ये कहानियाँ हमारी उन सुप्त संवेदनाओं को जगा देती हैं।

किताब का शीर्षक जिस कहानी से लिया गया है, ‘भयमुक्त बुग्याल’भेड़-बकरी-मेढ़-लंगोठों के रूप में हम लोगों की ही कहानी है। आज के दौर में भी हम इंसानों के बीच कुछ ऐसे ही भेड़िए हैं, जो आन्दोलनों को बिखरने, उनमें फूट डालने का काम तेजी से करने लगे हैं। इन आन्दोलनों में भी भयमुक्त बुग्याल की उसी कल्पना का अक्स दिखता है। जाॅर्ज औरवै ने भी शायद ऐसी ही कुछ कल्पना की होगी एनिमल फार्म जैसे कालजयी सृजन के समय!

उत्तराखण्ड आन्दोलन उसके परिणाम और अन्ततः हाथ लगी हताशा का सटीक चित्र खींचती है कहानी, ‘रतन सिंह को बालिग होने की बधाईयाँ’।

एक कहानी है, ‘साझा मकान’। इस कहानी में बैंडोली गाँव का सन्दर्भ पढ़कर कहानी से अजीब सी आत्मीयता हो गयी। बैंडोली के बाद आता है मलेटी गाँव, मेरा पैतृक गाँव है। मैं जानती हूँ कि एक दौर में बैंडोली, दुब्तोल़ी गाँव के कारीगरों की पूरे गढ़वाल में तूती बोलती थी, वहाँ के कारीगर बड़े प्रसिद्ध होते थे, जो महीनों-महीनों दूसरे गाँवों में म्वौरी-ख्वल़ी पर नक्काशियों के लिए गए होते थे। लेकिन अब ये पुश्तैनी काम नहीं रहा। सुना है, अब तो रोंट बनाने का सांचा ढालनेे वाला भी नहीं रहा वहाँ कोई!

समय साक्ष्य, देहरादून से वर्ष 2018 में प्रकाशित, ऐसी ही बेहतरीन कुल दस कहानियों का संकलन है, ‘भयमुक्त बुग्याल तथा अन्य कहानियाँ’। हो सके तो, पढ़िएगा।

मंगलवार, 8 दिसंबर 2020

"वूं मा बोलि दे": गणेश खुगशाल 'गणी'

 "वूं मा बोलि दे"






गणेश खुगशाल 'गणी' भाईसाहब द्वारा गढ़वाली मे रचित कविताओं का ऐसा संग्रह है, जिसकी एक एक कविता का अपना संसार है, अपनी गाथा है! 

 हमारे पहाड़ मे प्रचलित नये- पुराने दैनिक उपयोग के  साजो- सामान, हमारी दिनचर्या के हिस्से रहे मुहावरे-लोकोक्तियाँ, परिस्थितियों के अनुरूप उपजते भाव और आचार-व्यवहार..   कितने सामान्य प्रतीत होते हैं न, लेकिन इन कविताओं ने जैसे उनमे भी प्राण प्रतिष्ठित कर दिये हों! 

केदार आपदा से जुड़ी कविता 'हे भगवान' बेचैन  कर देती है, जैसे दर्द से भरी आत्मा की चीत्कार है ये कविता!

'भुक्कि'!  बरसों से कहीं खोयी हुई थी। इस शब्द में जो स्नेह है, वात्सल्यता है वो मुझे याद दिलाता है, जब माँ कहती थी, औ यख औ, यौक भुक्कि त देदे! 

मैने कहा न, इसकी हर कविता का अपना संसार है!

हमारी बोली भाषा और सांस्कृतिक विरासत को सहेजती दुलारती और समृद्ध करती ये खूबसूरत किताब हर लिहाज़ से नायाब है, जिसे हर पुस्तकालय मे होना चाहिये, जिसे पढ़ा जाना चाहिए ।

कितने सरल हैं गणेश भाई! कितनी सहजता से लिखा है उन्होने, कि  किताब लिखने से पहले मुझे डर था कि कहीं कोई कुछ कह न दे और किताब लिखने के बाद मुझे डर है कि कहीं कोई कुछ भी नहीं कहे! आपने तो निशब्द कर ही दिया है पाठक को! आपका आभार कैसे व्यक्त करें?

कुल 68 कविताओं का वृहद संकलन है इस किताब में जिसे विन्सर प्रकाशन ने 2014 मे छापा है । इस किताब की "अन्वार" (आवरण) का श्रेय जिन्हे गया है, वो तो मुझे अजीज़ हैं ही।

इस किताब का आमुख लिखते हुए माननीय श्री नेगी दा ने इसमे शामिल कविताओं के सार-तार के रूप मे उनकी ऊँचाईयों का खाका पहले ही पन्ने पर खींच कर रख दिया है।

इस किताब को पढ़ते हुए सोचती रही हूँ, कि हम कहाँ आ गए हैं, इतनी प्यारी भाषा को हम पीछे छोड़ते जा रहे हैं, हमसे अपनी भाषायी विरासत को ही सम्भाल  कर न रखा गया! भाषा से दूर होते जाना, मां से बिछुड़ना ही तो है! और हम तो शायद आखिरी पीढ़ी होने जा रहे हैं, अपने वंश की जो गढवाली बोल - पढ़ रहे हैं!

वाकई "गणेश खुगशाल" होना आसान नहीं है। अपनी बोली भाषा अपनी पहचान को बनाये - बचाए रखने के लिये उनकी कोशिशों के हम साक्षी हैं और निसन्देह हम सब उनके ऋणी  हैं। 'धाद' पत्रिका हमे उनकी, नवानी जी की और पूरी टीम की जी तोड़ मेहनत के बाद ही मिल पाती है, जिसका हर अंक संग्रहणीय होता है।

इतना सब लिखने के बाद भी मन ग्लानि से भरा हुआ है कि,  अपनी बात गढ़वाली मे लिखने का साहस न कर पायी मैं!

बुधवार, 30 सितंबर 2020

बुधवार, 2 सितंबर 2020

 

कफरनहूम (Capernaum), जिसे फिल्म भर तो नहीं कहा जा सकता!
 
सन् 2018 में बनी ये फिल्म अरबी भाषा में है, लेकिन इस पूरी फिल्म में कलाकारों के भाव ही संवाद बन जाते हैं। इसके मुख्य किरदार उन्हीं झोपड़ियों - तंग गलियों से हैं और वैसी ही ज़िन्दगी जीते रहे हैं (फिल्म रीलिज़ हो जाने से पहले तक), जैसा फिल्म में दर्शाया गया है, इसलिए कुछ बनावटी नहीं, कोई दिखावा नहीं, फलसफों से इतर सही मायनों में तो ये फिल्म न जाने कितनों की बायोपिक होगी, जिसे देखते हुए लगता है कि ये फिल्म से बढ़कर एक गुथी हुई डाॅक्यूमेण्ट्री है।
ये फिल्म आप्रवासियों और उनमें भी ज्य़ादा बच्चों, के दर्द से भरे हर नये दिन के जीवन संघर्ष की दर्द भरी कहानियों का दस्ता है। सच कहूँ तो इस फिल्म के बारे में “कुछ भी” कहने में मुझे हिचकिचाहट हो रही है क्योंकि मैं जानती हूं कि, संवेदनाओं के स्तर पर जिस चरम को ये छूती है, वहाँ तक मेरे शब्द नहीं पहुँच पाएंगे। इस फिल्म को देखते हुए मैं बहुत सुबकी साथ ही मन के किन्हीं कोनो में वो लोग भी सिसकते महसूस हो रहे थे, जिनके पास अपनी ‘कागजी’ आईडिंटी नहीं होती। देश की सीमाएं सत्ताओं को तो भाती हैं, उनका प्रबन्धन जो आसान हो जाता है, उनके हित जो सध जाते हैं, लेकिन आम आदमी जिसे, सिर्फ रोटी - कपड़ा और मकान की दरकार रहती है, ये सीमाएं कितनी ही बार उसकी इन आधारिक सुविधाओं से भी उसे महरूम कर देती हैं। क्यों होती होंगी ये सीमाएं!☹ 
बंगाल.....आसाम...सीरिया....लेबनान! आप्रवासियों का संकट सभी जगह एक है, पहचान का संकट! जो उन्हें जीवन के बहुत ज़रूरी हकों से महरूम कर देता है, और फिर शुरु होते हैं युद्ध! और किसी भी युद्ध की कीमत सबसे ज़्यादा बच्चे और औरतें ही चुकाते हैं, हम जानते हैं।
याद है, पा फिल्म का वो दृश्य जिसमें औरो (अमिताभ बच्चन) सफेद ग्लोब बनाता है, एक सीमा रहित - शान्ति - सद्भाव से भरी दुनिया का प्रतिरूप! काश ऐसा हो पाता!
फिल्म हमें लेबनान के हालातों से जूझते लोगों के करीब ले जाती है। इस फिल्म में हर किरदार अहम् है, लेकिन मुख्य है, ज़ेन, एक बारह साल का बच्चा। ज़ेन अपने माँ - बाप पर कोर्ट में मुकदमा लगा देता है, आरोप है- इन्होने मुझे जन्म दिया ! ये आरोप सिर्फ फिल्म में दिखाए गये ज़ेन के माँ - बाप पर ही लागू नहीं होता बल्कि हर उस समाज के चेहरे पर चिपका हुआ है, जहाँ बच्चों से उनका बचपन बड़ी क्रूरता से लूटा जा रहा है। फिल्म ऐसे मजबूर माँ - बाप का जूता भी तटस्थता से सामने रखती है, जिसमे हम और आप अपने पैर नही डाल सकते, जो हर संभव सुख अपने बच्चों को देना तो चाहते हैं, लेकिन उस सुख का कतरा भी जब अपने पास न हो तो वो कैसे और कहाँ से बच्चों को उनके हिस्से का हक़ दें? भूख मिटाने के लिए आखिरी साधन ही जब अपराध की दुनिया से आता हो, तो कैसे न वो खु़द को और अपने बच्चों को अपराधों के हवाले करें? ज़ेन, राहिल, योनास, सहर.... इस फिल्म का लगभग हर किरदार उस जीवन को जी रहा था, जिसे फिल्म के माध्यम से हमारे सामने लाईं, फिल्म की निर्देशिका- नादिन लाबाकी। नादिन का निर्देशन और कहानी दोनो बेशुमार तालियों के हक़दार हैं। नादिन जो खुद भी लेबनान से हैं और सिविल वार से पैदा उन त्रासद परिस्थितियों की गवाह रही हैं।
इस फिल्म का अंत इतना सुखद है, कि यकीनन आप भी भीतर तक भीग जाएंगे और इस पर भी गुड़ सी मिठास इस खबर में है कि, इस फिल्म के बाद ज़ेन (ज़ेन अल हज्ज), राहिल(योरदानो शिफेराॅ) और योनास (सबसे छोटा हीरो-बी ट्रेजर बैंकोले) की दुनिया ही बदल गयी।
( असली नाम बड़े कठिन हैं,सही उच्चारण हेतु कृपया गूगल कर लें😃)
⚘⚘⚘⚘⚘⚘
इस फिल्म ने मुझे इतना प्रभावित किया है कि, मै पिछले तीन दिनों से समय मिलते ही फिल्म से जुड़े लोगों के बारे में जानने के लिए इण्टरनेट खंगाल रही हूँ!
और आखिरी एक बात....
Did you know that every two hours the nations of this world spend as much on armaments as they spend on the children of this world every year?
-- Peter Ustinov

 

शनिवार, 29 अगस्त 2020

 

इकिगाई:
क्या मुझे मालूम है कि मेरा इकिगाई क्या है?
जवाब है नही, अभी तक तो शायद नही ही!
जब से इस किताब को पढ़ना शुरु किया और आज इस किताब को पूरा पढ़ लेने के बाद तक मै यही सोच रही हूँ, कि मैं नही जानती मेरा जीवन का वो उददेश्य क्या है, जिसे पाने के लिये मै सबसे ज्यादा उत्साही हूँ या जिसे पाने के लिये मै जो प्रयास करुँ वो मुझे सबसे ज्यादा आनंदित करें। यूँ तो मेरा हर दिन व्यस्तता के बीच गुजरता है, जिसमे से अक्सर मैं कुछ घन्टे व्यायाम करने, पौधों को छूने-निहारने-सहलाने, फिल्में देखने, अखबार पढ़ने, सहेलियों से गप्पाने और किताब पढ़ने जैसे अपने प्रिय शगलों के लिये निकालने की कोशिश करती हूँ, मुझे घूमने के भी खूब अवसर मिलते रहे हैं। अपने दफ्तर के काम को भी मै खूब आनन्द के साथ करने की कोशिश करती हूँ, जितना challanging काम आता है, मै उतनी ही ऊर्जित हो जाना चाहती हूँ। ज़रूरत के समय मै अपने सिर पर स्नेह प्रेम और आशीष की छांव भी पाती रही हूँ। मेरे कुछ सपने कुछ ख्वाहिशें अभी बाकि भी हैं, जिन्हे मै पूरा करना चाहती हूँ।
कुल मिलाकर, अपने इकिगाई को पाने के रास्ते मे पड़ने वाले उन सब milestones, जिनकी तरफ ये किताब इशारा करती है, की थोड़ी बहुत उपस्थिति मेरे जीवन मे है, लेकिन मै संतुष्ट नही हूँ, और सन्तोष का वो पड़ाव ही इस किताब की आखिरी मंजिल है, जो मुझे ढूँढना है! एक कसमसाहट जो बनी रहती है, कि सिर्फ ये ही तो मुझे नही करना था! समाज को कुछ भी न लौटा पाने का मलाल जो मेरे इन्द्रधनुष के से आसमान का रंग फीका कर देता है, उस अपूर्णता से पार पाने की संभावनाओं को अपने आज मे खोजना है, वही तो होगा, मेरा इकिगाई!
हेक्टर गार्सिया और फ्रांसिस मिरेलस ने ये किताब लिखी है। इकिगाई एक जापानी संकल्पना है, जिसका अर्थ चंद शब्दों मे नही बताया जा सकता लेकिन, कह सकते हैं कि जीवन को आनंद और सन्तोष के साथ जीने के लिये एक अच्छा मकसद ही आपका इकिगाई है। इसमे समाज की चिंता को शामिल किया गया है, victor फ्रांकल जिन्होने नाजियोँ की बर्बरता को सहकर भी अपना इकिगाई पाया और logo therapy विकसित की, जिसने हजारों लोगों को नया जीवन दिया, की theory को विस्तार से बताया है। इस किताब ने मुझे rejuvenate किया है, ये उन सभी किताबों से अलग है, जिन्हे कुछ लोग motivational book के नाम पर बस अलग रैपर मे परोस देते हैं।
पहले ही मुझे जापानी trends आकर्षित करते हैं, इस किताब ने तो मेरे उन आग्रहों को जड़ें ही दे दीं हैं। 😄

(this book reminds me of movie by akira kurosawa, village of the watermills.)