मंगलवार, 22 दिसंबर 2020

भयमुक्त बुग्याल तथा अन्य कहानियाँ : श्री नन्द किशोर हटवाल

 

पिछले दिनों नन्द किशोर हटवाल जी की किताब ‘भयमुक्त बुग्याल तथा अन्य कहानियाँ’ पढ़ी। अपने लेखन की श्रंखला में एक और बेहतरीन रचना को जोड़ने के लिए श्री नन्द किशोर हटवाल जी को हार्दिक बधाई और धन्यवाद हम पाठकों को विशेषकर उत्तराखण्ड वासियों को ये उत्कृष्ट कृति भेंट करने के लिए। 

‘भयमुक्त बुग्याल’ अपने शीर्षक और आवरण से ही सम्मोहित करना शुरू कर देती है। हरेक कहानी सामाजिक सरोकारों का ही प्रतिबिम्ब लगती हैं, जैसे हम अपनी ही आंखो से सब होता देख रहे हैं, वही रूढ़ियाँ, वही मानसिक कमज़ोरियाँ, वही राजनीति, वही सामाजिक विघटन! सब कुछ वही जिसे हम महसूस करते आ रहे हैं, लेकिन ये कहानियाँ हमारी उन सुप्त संवेदनाओं को जगा देती हैं।

किताब का शीर्षक जिस कहानी से लिया गया है, ‘भयमुक्त बुग्याल’भेड़-बकरी-मेढ़-लंगोठों के रूप में हम लोगों की ही कहानी है। आज के दौर में भी हम इंसानों के बीच कुछ ऐसे ही भेड़िए हैं, जो आन्दोलनों को बिखरने, उनमें फूट डालने का काम तेजी से करने लगे हैं। इन आन्दोलनों में भी भयमुक्त बुग्याल की उसी कल्पना का अक्स दिखता है। जाॅर्ज औरवै ने भी शायद ऐसी ही कुछ कल्पना की होगी एनिमल फार्म जैसे कालजयी सृजन के समय!

उत्तराखण्ड आन्दोलन उसके परिणाम और अन्ततः हाथ लगी हताशा का सटीक चित्र खींचती है कहानी, ‘रतन सिंह को बालिग होने की बधाईयाँ’।

एक कहानी है, ‘साझा मकान’। इस कहानी में बैंडोली गाँव का सन्दर्भ पढ़कर कहानी से अजीब सी आत्मीयता हो गयी। बैंडोली के बाद आता है मलेटी गाँव, मेरा पैतृक गाँव है। मैं जानती हूँ कि एक दौर में बैंडोली, दुब्तोल़ी गाँव के कारीगरों की पूरे गढ़वाल में तूती बोलती थी, वहाँ के कारीगर बड़े प्रसिद्ध होते थे, जो महीनों-महीनों दूसरे गाँवों में म्वौरी-ख्वल़ी पर नक्काशियों के लिए गए होते थे। लेकिन अब ये पुश्तैनी काम नहीं रहा। सुना है, अब तो रोंट बनाने का सांचा ढालनेे वाला भी नहीं रहा वहाँ कोई!

समय साक्ष्य, देहरादून से वर्ष 2018 में प्रकाशित, ऐसी ही बेहतरीन कुल दस कहानियों का संकलन है, ‘भयमुक्त बुग्याल तथा अन्य कहानियाँ’। हो सके तो, पढ़िएगा।

मंगलवार, 8 दिसंबर 2020

"वूं मा बोलि दे": गणेश खुगशाल 'गणी'

 "वूं मा बोलि दे"






गणेश खुगशाल 'गणी' भाईसाहब द्वारा गढ़वाली मे रचित कविताओं का ऐसा संग्रह है, जिसकी एक एक कविता का अपना संसार है, अपनी गाथा है! 

 हमारे पहाड़ मे प्रचलित नये- पुराने दैनिक उपयोग के  साजो- सामान, हमारी दिनचर्या के हिस्से रहे मुहावरे-लोकोक्तियाँ, परिस्थितियों के अनुरूप उपजते भाव और आचार-व्यवहार..   कितने सामान्य प्रतीत होते हैं न, लेकिन इन कविताओं ने जैसे उनमे भी प्राण प्रतिष्ठित कर दिये हों! 

केदार आपदा से जुड़ी कविता 'हे भगवान' बेचैन  कर देती है, जैसे दर्द से भरी आत्मा की चीत्कार है ये कविता!

'भुक्कि'!  बरसों से कहीं खोयी हुई थी। इस शब्द में जो स्नेह है, वात्सल्यता है वो मुझे याद दिलाता है, जब माँ कहती थी, औ यख औ, यौक भुक्कि त देदे! 

मैने कहा न, इसकी हर कविता का अपना संसार है!

हमारी बोली भाषा और सांस्कृतिक विरासत को सहेजती दुलारती और समृद्ध करती ये खूबसूरत किताब हर लिहाज़ से नायाब है, जिसे हर पुस्तकालय मे होना चाहिये, जिसे पढ़ा जाना चाहिए ।

कितने सरल हैं गणेश भाई! कितनी सहजता से लिखा है उन्होने, कि  किताब लिखने से पहले मुझे डर था कि कहीं कोई कुछ कह न दे और किताब लिखने के बाद मुझे डर है कि कहीं कोई कुछ भी नहीं कहे! आपने तो निशब्द कर ही दिया है पाठक को! आपका आभार कैसे व्यक्त करें?

कुल 68 कविताओं का वृहद संकलन है इस किताब में जिसे विन्सर प्रकाशन ने 2014 मे छापा है । इस किताब की "अन्वार" (आवरण) का श्रेय जिन्हे गया है, वो तो मुझे अजीज़ हैं ही।

इस किताब का आमुख लिखते हुए माननीय श्री नेगी दा ने इसमे शामिल कविताओं के सार-तार के रूप मे उनकी ऊँचाईयों का खाका पहले ही पन्ने पर खींच कर रख दिया है।

इस किताब को पढ़ते हुए सोचती रही हूँ, कि हम कहाँ आ गए हैं, इतनी प्यारी भाषा को हम पीछे छोड़ते जा रहे हैं, हमसे अपनी भाषायी विरासत को ही सम्भाल  कर न रखा गया! भाषा से दूर होते जाना, मां से बिछुड़ना ही तो है! और हम तो शायद आखिरी पीढ़ी होने जा रहे हैं, अपने वंश की जो गढवाली बोल - पढ़ रहे हैं!

वाकई "गणेश खुगशाल" होना आसान नहीं है। अपनी बोली भाषा अपनी पहचान को बनाये - बचाए रखने के लिये उनकी कोशिशों के हम साक्षी हैं और निसन्देह हम सब उनके ऋणी  हैं। 'धाद' पत्रिका हमे उनकी, नवानी जी की और पूरी टीम की जी तोड़ मेहनत के बाद ही मिल पाती है, जिसका हर अंक संग्रहणीय होता है।

इतना सब लिखने के बाद भी मन ग्लानि से भरा हुआ है कि,  अपनी बात गढ़वाली मे लिखने का साहस न कर पायी मैं!