गुरुवार, 9 फ़रवरी 2012

'अतिक्रमण'

atikraman........
जैसे जैसे कस्बों का शहरीकरण होता जाता है, खेती की जमीनें तो ख़त्म हो ही जाती हैं, रिहायशी जमीने भी कम पड़ने लगती हैं और शुरू होने लगता है भूमाफियाओं का खेल, जिसमे छोटे-बड़े कई खिलाडी चांदी काटते हैं और फिर इन शहरों में बस्तियों के अवैध तरीकों से बसने और फिर उनके अतिक्रमण की ज़द में आने के कारन उजड़ने की एक दर्दनाक प्रक्रिया जैसे आम होने लगती हैं इस दर्द को रामदीन से बेहतर कौन समझ सकता था? आठवीं पास रामदीन उन्नीस बरस का ही था, जब एक अदद नौकरी की तलाश में शहर चला आया था, लेकिन नौकरी का पता था और ही भविष्य का, बस सभी तो पहाड़ से मैदान की ओर चले आते थे और अपने पीछे छोड़े परिवार के पास जब कभी मिलने आते तो पूरा गाँव उन्हें सिर-आंखों पे बिठाता, शायद ये ही दिखावा उसे गाँव से शहर खींच लाया था पहाड़ों में जीवन कठिन था, मगर शहर की तरह दम घोटूं नहीं, पर रामदीन को शहरी मरीचिका कदर खींच रही थी की वो शादी वाले बरस ही sअपने खेत-बैल-घर सब कुछ बेचकर कभी लौटकर आने के इरादे से सपत्नीक गाँव की दहलीज़ पार कर गया और वाकई वह कभी लौट कर नहीं पाया, चाह कर भी नहीं!..........


रेडियो में चल रहे नेगी के गीत, " दौड़ दौड़ तें उन्दर्युं का बाटा......." को सुनकर रामदीन फफक-फफक कर रोया था और उसे दिलासा देने वाला कोई भी तो उसके आसपास था, पत्नी को गुजरे कई साल बीत गए थे और बच्चे अपने-अपने घरों में जीने की ज़द्द-- ज़हद में जुटे हुए गीत का एक-एक शब्द रामदीन को ताने मार रहा था बहुत जी होता था, वो लौट जाये अपने गाँव, अपने पहाड़, मगर आज वहां अपने खेत बचे थे ही घर, उन्ही की कीमत पर तो उसने शहर में बेहतर जीवन के सपने खरीदे थे सुनता था, उसके गाँव में पिछले कुछ समय से काफी तरक्की होने लगी है, वहां गूलों के जरिये खेतों में पानी की व्यवस्था होने से जिन खेतों को रामदीन बरसों पहले बेच आया था, अच्छी फसल देने लगे थे, सरकार ने कुछ योजनायें भी चलायी थीं बिजली, जिसकी कल्पना भी रामदीन ने अपने रहते गाँव में कभी नहीं की थी, अब घर-घर पहुँच गयी थी, जिससे वहां का जीवन भी बदल गया था टेलीविजन, फोन, सड़क, स्कूल, अस्पताल काफी चीजें बेहतर हो गयी थीं काश! यहाँ आता, ये ख़याल रामदीन के मन का दरवाजा कई बार खटखटाता, मगर अब लौटना नामुमकिन है, यही सोचकर वह खुद को मनाता और यूँ ही इस गीत को सुनते हुए अपना मन भारी करता मगर गांव - घर chhodne का ये दर्द शायद इतना ज्यादा तकलीफदेय नहीं बनता अगर उसने अपने -खेत-खलिहानों को बेचकर, अपने यार दोस्तों से क़र्ज़ लेकर शहर के बंजर पड़े हिस्से पर झोपड़ी भर जमीन दलाल से खरीदी होती, जिस पर 'अतिक्रमण' की गाज गिरने वाली थी उस समय आठ हज़ार में शहर में अपना घर सोचकर भी रामदीन को सपने देखने जैसा लगा, शहर में अपने घर की चाहत तो उसे पहले से ही थी, दलाल ने भी रामदीन को जमीन बेचने के लिए और उसके जैसे जाने कितने ही रामदीनों के घर के रात-din चक्कर लगाये थे और रामदीन ने भी इस जमीन को पाने के लिए कुछ दिन सारे काम छोड़ दिए थे, जानता तो था ही की जमीन के पक्के कागज़ नहीं हैं, मगर दलाल ने आश्वस्त किया था, की इस पर उसका ही हक रहेगा, चाहेगा तो ज़मीन वापस बेच भी सकेगा उस समय तो 'अतिक्रमण' शब्द से भी रामदीन परिचित नहीं था, किसी तरह हाथ पैर मारकर जमीन का ये टुकड़ा खरीद ही लिया और हाथों-हाथ कच्ची-पक्की ईंटों की एक झोपडी बना डाली, फिर जितना कमाया वो झोपडी को मकान बनाने में लगा दिया शहर की आपाधापी में जीवन के अनमोल बरस कैसे बीत गए पता ही नहीं चला फ़ाकाकशी के बावजूद भी, दीवाली के दिए-पटाखों से घर रोशन किया पर ऐगास की सी रौनक कभी जमी, बीडी के कशों में हुक्के की सी गर्माहट और संतुष्टि कभी मिली, मौहल्ले में कीर्तन मंडली की औरतों के भजनों की आवाज तो कानों में पड़ती थी पर मांगल गीतों की लयतालों के लिए कान तरसते ही रहे, पर रामदीन शायद तब भी गाँव छोड़ने की अपनी गलती पर यूँ पश्चाताप के आंसू बहता अगर उसे सरकार का ये नोटिस मिलता की उसका घर अतिक्रमण के ज़द में है और एक हफ्ते के अन्दर उसे ये घर खली करना है इस नोटिस ने रामदीन की दुनिया ही बदल दी थी, अब तक तो वो सुनता ही आया था की शहर में अतिक्रमण की ज़द में आये घरों को सरकार उजाड़ देती है, मगर उसका अपना घर इस अतिक्रमण की भेंट चढ़ेगा इसका उसे एहसास तक था अचानक आये इस तुगलकी फरमान ने मोहल्ले के उसके जैसे सारेरामदीनोंका चैन छीन लिया था, सबकी भूख- प्यास ख़त्म थी, 'बड़ी पहुँच' तक अपने-अपने श्रोत सबने तलाशे, पालिका सदस्य से लेकर विधायक तक सबके हाथ जोड़े, मगर इससे पहले भी कई बस्तियां उजड़ी थीं, उन्हें कुछ मुआवजा मिला तो मिला नहीं तो नहीं, फिर ये बस्ती कौन सी अलग थी, जिसके लिए कोई नीति निर्माण होता और वहां बरसों से रह रहे लोगों के घरों को बचने की कोशिश की गयी होती!
आखिर एक सप्ताह की समय सीमा ख़त्म हुयी और बड़ा पुलिस दल-बल बड़े अधिकारी और राक्षसी जेसीबी मशीनें सब तांडव मचने बस्ती में एक साथ घुस आये इस हफ्ते में रामदीन एक रात भी सोया था, सिर्फ अपना पिछला कल पढता रहा मानो किसी पाठ की पुनरावृत्ति करता रहा हो इस अवैध बस्ती के मुहाने पर ही रामदीन की एकमात्र पूंजी, उसका घर था बढती मशीनों को देखकर कुछ मर्दों-औरतों ने तो हाथों में पत्थर उठा लिए थे, कुछ औरतें और बच्चे रो-रो कर बदहाल हो रहे थे, लेकिन इन चीखों के बीच में रामदीन की कांपती आवाज़ दबी जा रही थी फिर भी वो पूरी ताकत से चिल्लाता जा रहा था- मेरा घर मत तोड़ो! हमारे घर छोड़ दो! पहले दलालों को तो पकड़ो! कुछ तो समय दे दो साब! हे द्यबतों तुम ता सूणा! और भी जाने क्या क्या विनती करता रहा, हांफता रहा, रोता रहा अपने घर को बचने के लिए वो घर की तरफ दौड़ना चाह रहा था मगर दो-दो सिपाहियों की मजबूत गिरफ्त में बंधे रामदीन में उनसे लड़ने की ताकत ही नहीं बची थी, कि तभी भीड़ में से एक झुण्ड पेट्रोल से भरे तीन केन लेकर आगे गया, सभी एक ही बात कह रहे थे..........अगर हमारे gharon को हाथ भी लगाया तो हम खुद को आग लगाकर यहीं ख़त्म कर लेंगे! रामदीन को पकडे पुलिस के दोनों जवानों ने ज्यूँ ही उस झुण्ड को रोकने के लिए रामदीन कि पकड़ ढीली की, भीड़ की हाँ में हाँ मिलाता रामदीन बिजली की तरह अगले ही पल उस झुण्ड के आगे खड़ा हो गया और इससे पहले कि पुलिस इस झुण्ड को संभालती, सारा का सारा पेट्रोल रामदीन के ऊपर गया, ये किसी को पता नहीं कि ये रामदीन का अपना प्रयास था या ये सुनियोजित तरीके से घटित कोई आकस्मिक घटना

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