जब भी झाँका है तेरी इन डूबती आँखों में कभी
हर बखत एक ही मंजर नज़र आया है मुझे
इक शहर हो कोई उजड़ा जैसे
हो उदासी का बसर तनहा जैसे
एक वीरानगी का आलम है तेरी आँखों में
कैसा अवारापन है तेरी आँखों में
खुद को किस बोझ तले दफनाया तूने
अपने अरमानों को क्यूँकर जलाया तूने
क्यूँ नहीं ज़िन्दगी को कोई रंग देती
क्यूँ भला खुद को भुलाया तूने
क्यूँ पकड़ रखा है तूने बीते कल का आँचल
गौर से देख तेरे पास 'आज' आया है..................!!!
मंगलवार, 10 जनवरी 2012
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