मुझे ड्यूटी से लौटने में देर हो गयी थी, सुनसान सड़कें कोहरे की चादर ओढ़कर नींद की आगोश में समा गयी थीं, सिर्फ कहीं कहीं पर स्ट्रीट लाइटों का उजाला अपनी बाहें फैलाता दिख रहा था और घने कोहरे के कारण वो भी सिमटा सिमटा सा था। घरों की बुझी बत्तियां मुझे हद से ज्यादा देर हो जाने का एहसास करा रही थीं। ये सन्नाटा मुझे हैरान करने से ज्यादा डरा रहा था। यूँ तो पहले भी कई बार ऑफिस से देर में घर लौटती थी। लेकिन दुकाने खुली होती थी, राहगीरों की चहल-कदमी से सड़कें झंकृत रहती थीं, सो डर ने मन में कभी घर नहीं किया। शायद इसीलिए आज भी ऑफिस से निकलते समय देर हो जाने का भान तो था, पर काम करते करते समय का पता ही नहीं चला, फाईलें निबटते ही पर्स उठाकर सीधे अपनी स्कूटी स्टार्ट की और बिना समय देखे चल पड़ी। २४ x 7 का ऑफिस है, इसलिए वहां तो हमेशा भीड़-भाड़ रहती है, पार्किंग में भी रौशनी का ऐसा इंतज़ाम है कि रात और दिन में भेद करना मुश्किल है। लेकिन आज मैं खुद पर हैरान थी कि मैंने ऑफिस में इतनी देर कर कैसे दी? सवालों के सैलाब मन में उमड़-घुमड़ करने लगे-लोग सड़कों से कहाँ नदारद हो गए? लोग जल्दी सो गए या यहाँ कोई बात हो गयी? ये विरानगी कैसी है? और भी न जाने क्या-क्या। रस्ते से एक अजीब सा अनजानापन महसूस हो रहा था, इस डरावनी स्याह रात में मुझे सिर्फ मेरी गाड़ी की हेड लाईट का ही सहारा था। मै जानना चाहती थी की आखिर टाइम कितना हो गया है, पर हाथ पर घड़ी बांधना तो मोबाइल ने छुड़वा दिया और मोबाइल उस पर्स में था जो इस वक्त गाड़ी की डिग्गी में इत्मिनान से पड़ा था. अब न इतना समय बचा था और न ही इतनी हिम्मत की गाड़ी रोककर मोबाइल निकालूं और टाइम देखूं। अभी तो बस और बस किसी तरह से फर्राटे से गाडी दौड़ाती हुई मै जल्दी से जल्दी घर पहुंचना चाहती थी कि अचानक मेरी गाडी की हेड लाईट किसी छोटी सी बच्ची के शरीर से टकरायी। वो बच्ची रौशनी की चौंध से बेअसर नि:स्तब्ध सी चली जा रही थी, पर मुझे लगा कि इस अँधेरे में मुझे इस बच्ची को अकेले नहीं छोड़ना चाहिए, एक तरफ घर पहुँचने की जल्दी दूसरी तरफ वो बच्ची....गाडी रोकूँ या चलती रहूँ...ये फैसला लेने से पहले ही मैं उस बच्ची को पार कर गयी, आगे निकल जाने पर खुद को कोसा कि मैं इतनी निष्ठुर कैसे बन गयी, एक अकेली बच्ची पर मुझे क्यूँकर तरस नहीं आया, उसे कहाँ जाना है, वो अकेली क्यूँ जा रही है, मुझे पूछना चाहिए था, पर अगले ही पल खुद को सांत्वना भी दे डाली। थोड़ी दूर आगे बढ़ी ही थी कि, फिर से वही बच्ची मेरी गाड़ी की रौशनी में मुझे आगे चलते हुए दिखाई दी। वैसी है अविचल वैसी ही नि: स्तब्ध। ऐसा कैसे हो सकता है जिस लड़की को मैंने कुछ मीटर पहले पैदल चलते देखा था, वो मुझसे आगे फिर से कैसे आ सकती है? लड़की वही है, आकर- बनावट, कपड़े -चाल सब कुछ वही है, पर ऐसा कैसे हो सकता है, ये कोई दृष्टि भ्रम भी नहीं था, क्योंकि उस लड़की को लेकर कुछ ही पल पहले मेरी खुद से गुत्थम गुत्था हुई थी। फिर आखिर ये सब क्या है? मेरा तन मन थरथराने लगा, एक तो कुहासी रात उस पर घबराहट , मुझे लगा मेरा शरीर ठण्ड से जकड़ गया है, मैंने अपनी ज़िन्दगी भर की हिम्मत को बटोरते हुए रूककर उस लड़की को ढंग से देखने का फैसला लिया। मैंने उस लड़की के पास गाड़ी रोकी और उसे रुकने के लिए कहा, उसने जैसे ही पीछे मुड़कर देखा मेरी साँसे थमी की थमी रह गयी....मारिया! मेरे मुह से सिर्फ इतना ही निकल पाया, मै जम कर जड़ हो गयी थी।
मारिया? यहाँ, वो भी इस हाल में?
कैसे? उसे तो अस्पताल में होना चाहिए था, वो तो आई सी यू में थी, फिर ये..?
मैंने डरते-डरते फिर पूछा, मारिया.....?
उसने बहुत ही उदास स्वर में कहा...मम्मा!
उस अँधेरी रात में उसका पीला चेहरा मुझे साफ़-साफ़ दिखाई दे रहा था। उसकी आवाज सुनकर मै सब कुछ भूल गयी, मैंने उसे गले लगाना चाहा पर मेरे छूने से पहले ही वो जमीन पर गिर पड़ी। मैं बहुत जोर से चिल्लाई, मारिया...........!
अपनी ही आवाज को अपने कानो में मैंने जोर से सुना और मेरी नींद खुल गयी। आह! मैंने चैन की सांस ली, शुक्र है कि ये सपना था। रजाई कम्बल एक ओर पड़े थे और मैं दूसरी ओर। मुझे जबरदस्त ठण्ड लग रही थी।
आज ही अस्पताल से लौटी अपनी प्यारी मारिया के सिर पर मैंने धीरे से हाथ फेरा और खुद को सिकोड़कर फिर से रजाई के हवाले कर दिया.
गुरुवार, 1 मार्च 2012
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3 टिप्पणियां:
बार बार पढ़ने को विवश कर रही है यह कहानी। नायाब अंदाज में कही गई इस कहानी के लिए ढेरों बधाई एवं शुभकामनाएं।
आप बहुत अच्छा लिखती हैं। संवेदनाओं को छूती हैं। मूल्यपरक बातों का-आदतों का समर्थन करती हैं। यह सब साहित्य का प्राण है। आगे बढ़िये। समूचा संसार आपके लिए ही तो है। बधई।
well expressed thought.
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