बुधवार, 2 सितंबर 2020

 

कफरनहूम (Capernaum), जिसे फिल्म भर तो नहीं कहा जा सकता!
 
सन् 2018 में बनी ये फिल्म अरबी भाषा में है, लेकिन इस पूरी फिल्म में कलाकारों के भाव ही संवाद बन जाते हैं। इसके मुख्य किरदार उन्हीं झोपड़ियों - तंग गलियों से हैं और वैसी ही ज़िन्दगी जीते रहे हैं (फिल्म रीलिज़ हो जाने से पहले तक), जैसा फिल्म में दर्शाया गया है, इसलिए कुछ बनावटी नहीं, कोई दिखावा नहीं, फलसफों से इतर सही मायनों में तो ये फिल्म न जाने कितनों की बायोपिक होगी, जिसे देखते हुए लगता है कि ये फिल्म से बढ़कर एक गुथी हुई डाॅक्यूमेण्ट्री है।
ये फिल्म आप्रवासियों और उनमें भी ज्य़ादा बच्चों, के दर्द से भरे हर नये दिन के जीवन संघर्ष की दर्द भरी कहानियों का दस्ता है। सच कहूँ तो इस फिल्म के बारे में “कुछ भी” कहने में मुझे हिचकिचाहट हो रही है क्योंकि मैं जानती हूं कि, संवेदनाओं के स्तर पर जिस चरम को ये छूती है, वहाँ तक मेरे शब्द नहीं पहुँच पाएंगे। इस फिल्म को देखते हुए मैं बहुत सुबकी साथ ही मन के किन्हीं कोनो में वो लोग भी सिसकते महसूस हो रहे थे, जिनके पास अपनी ‘कागजी’ आईडिंटी नहीं होती। देश की सीमाएं सत्ताओं को तो भाती हैं, उनका प्रबन्धन जो आसान हो जाता है, उनके हित जो सध जाते हैं, लेकिन आम आदमी जिसे, सिर्फ रोटी - कपड़ा और मकान की दरकार रहती है, ये सीमाएं कितनी ही बार उसकी इन आधारिक सुविधाओं से भी उसे महरूम कर देती हैं। क्यों होती होंगी ये सीमाएं!☹ 
बंगाल.....आसाम...सीरिया....लेबनान! आप्रवासियों का संकट सभी जगह एक है, पहचान का संकट! जो उन्हें जीवन के बहुत ज़रूरी हकों से महरूम कर देता है, और फिर शुरु होते हैं युद्ध! और किसी भी युद्ध की कीमत सबसे ज़्यादा बच्चे और औरतें ही चुकाते हैं, हम जानते हैं।
याद है, पा फिल्म का वो दृश्य जिसमें औरो (अमिताभ बच्चन) सफेद ग्लोब बनाता है, एक सीमा रहित - शान्ति - सद्भाव से भरी दुनिया का प्रतिरूप! काश ऐसा हो पाता!
फिल्म हमें लेबनान के हालातों से जूझते लोगों के करीब ले जाती है। इस फिल्म में हर किरदार अहम् है, लेकिन मुख्य है, ज़ेन, एक बारह साल का बच्चा। ज़ेन अपने माँ - बाप पर कोर्ट में मुकदमा लगा देता है, आरोप है- इन्होने मुझे जन्म दिया ! ये आरोप सिर्फ फिल्म में दिखाए गये ज़ेन के माँ - बाप पर ही लागू नहीं होता बल्कि हर उस समाज के चेहरे पर चिपका हुआ है, जहाँ बच्चों से उनका बचपन बड़ी क्रूरता से लूटा जा रहा है। फिल्म ऐसे मजबूर माँ - बाप का जूता भी तटस्थता से सामने रखती है, जिसमे हम और आप अपने पैर नही डाल सकते, जो हर संभव सुख अपने बच्चों को देना तो चाहते हैं, लेकिन उस सुख का कतरा भी जब अपने पास न हो तो वो कैसे और कहाँ से बच्चों को उनके हिस्से का हक़ दें? भूख मिटाने के लिए आखिरी साधन ही जब अपराध की दुनिया से आता हो, तो कैसे न वो खु़द को और अपने बच्चों को अपराधों के हवाले करें? ज़ेन, राहिल, योनास, सहर.... इस फिल्म का लगभग हर किरदार उस जीवन को जी रहा था, जिसे फिल्म के माध्यम से हमारे सामने लाईं, फिल्म की निर्देशिका- नादिन लाबाकी। नादिन का निर्देशन और कहानी दोनो बेशुमार तालियों के हक़दार हैं। नादिन जो खुद भी लेबनान से हैं और सिविल वार से पैदा उन त्रासद परिस्थितियों की गवाह रही हैं।
इस फिल्म का अंत इतना सुखद है, कि यकीनन आप भी भीतर तक भीग जाएंगे और इस पर भी गुड़ सी मिठास इस खबर में है कि, इस फिल्म के बाद ज़ेन (ज़ेन अल हज्ज), राहिल(योरदानो शिफेराॅ) और योनास (सबसे छोटा हीरो-बी ट्रेजर बैंकोले) की दुनिया ही बदल गयी।
( असली नाम बड़े कठिन हैं,सही उच्चारण हेतु कृपया गूगल कर लें😃)
⚘⚘⚘⚘⚘⚘
इस फिल्म ने मुझे इतना प्रभावित किया है कि, मै पिछले तीन दिनों से समय मिलते ही फिल्म से जुड़े लोगों के बारे में जानने के लिए इण्टरनेट खंगाल रही हूँ!
और आखिरी एक बात....
Did you know that every two hours the nations of this world spend as much on armaments as they spend on the children of this world every year?
-- Peter Ustinov

 

कोई टिप्पणी नहीं: