शनिवार, 21 जनवरी 2012

माँ जब भी मुझे बुलाती है .................!

माँ जब भी मुझे बुलाती है .................
बस सबसे छुपके, चुपके से
अंखियों से नीर बहाती हूँ
लाचार नहीं मैं फिर भी यूँ
बेचारी हो रह जाती हूँ
दिल को कितना ही कड़ा करूँ
ये मन ही मन घुलता रहता
हो मोम का जैसे बुत कोई
जलता रहता- गलता रहता
सब भूल भी जाऊं मैं लेकिन
माँ का अर्पण कैसे भूलूं
माँ के आगे- पीछे बीते
उस बचपन को कैसे भूलूं
अब बात नहीं मेरे बस में
मै टुकड़े- टुकड़े टूट चुकी
तेरी ममता के हिस्से के
टुकड़े को मैं खुद लूट चुकी
खुशियों की बस्ती में रहकर
बस यादों से घबराती हूँ
कितने द्वंदों- प्रतिद्वंदों की
लपटों में मैं घिर जाती हूँ
माँ जब भी मुझे बुलाती है .................

4 टिप्‍पणियां:

JAGMOHAN BANGANI ने कहा…

deeply rooted texts,
don't know why,
such feelings came out.

but,
its rather true,
that the feelings,
have to come out.

and,
have to make feel
its true
feelings.

Sunitamohan ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
Tanwar ने कहा…

really....maa ka ehsaan nahi chuka payenge

good one.........lage raho

Unknown ने कहा…

एक मां ही मां के आह्वान की स्वर लहरियों को-पुकार को-ममतामयी धाद को समझ-सुन सकती है। हम तो बस महसूस करने भर की कल्पना ही कर सकते है। एक अच्छी और अपनत्व का सा भाव जगाने वाली रचना के लिए आपको सेल्यूट।