“....प्लेग किसी का लिहाज या इज्जत नहीं करती थी और उसके निरंकुश शासन में गर्वनर से लेकर मामूली अपराधी भी एक-सी सजा भुगत रहा था और जेल के इतिहास में शायद पहली बार निष्पक्ष रूप से इन्साफ हो रहा था।
प्लेग भेद-भावों को समतल कर रही थी, इसे दूर करने के लिए अधिकारियों ने छोटे-बड़े का वर्गीकरण किया... ”
प्लेगः अल्वेयर कामू
अनुवादकः अनुराधा श्रीवास्तव
प्रकाशन सर्वोदय साहित्य संस्थान, दिल्ली
कोरोना का ये दौर, जैसे इस किताब में दिए कथ्यों की पुनरावृत्ति है! आज शायद इसलिए भी इस किताब की प्रासंगिकता पाठकों के लिए बढ़ जाती है। 1947 में मूल रूप से French में लिखी गयी ‘ला पेस्ट’ का यह हिन्दी अनुवाद हम हिन्दी के पाठकों के लिए किसी अनुग्रह से कम नहीं है।
कोरोना के इस दौर में हमने कोरोना मरीज़ों के साथ ही न जाने कितने डाॅक्टरों, नर्सों और सेवा में लगे लोगों - तीमारदारों को पूरी ईमानदारी से जुटते हुए देखा, उनमें से कितनों ही को जान गंवाते देखा। कोरोना और ज़िन्दगी के इस महायुद्ध में ज़िन्दगी के पक्ष में न जाने कितने ही वाॅलण्टियर्स ने खुद को समर्पित किया। इस दौर में सरकारी फरमानों की बाढ़ आई तो कहीं नाफरमानी हुई। लाॅक डाउन में सड़कों पर पैदल चलने वालों की मजबूरियों को देखकर दिल ज़ार-ज़ार भी हुआ।
इन सब मानवीय संवेदनाओं को ‘प्लेग’ में जिस तरह से लिखा गया है, उसे ठीक वैसे ही इस दौर में हमने जीकर महसूस किया है। परिस्थितियों के प्रति मनुष्य का व्यवहार हमेशा लगभग एक जैसा रहा है। किताब में हम पढ़ते हैं कि किस तरह पादरी, फादर पैनेलो चर्च में उमड़ी भीड़ को परिस्थितियों को धार्मिक चश्में से दिखाने की कोशिश करता है, जो बाद में खुद भी प्लेग से मर जाता है, इस बीच के घटनाक्रमों में वह ज़रूरी भूमिका में है, लेकिन धर्म और बीमारी का काॅकटेल यहाँ भी मिलता है, यह दीगर बात है कि धार्मिक द्वेषों को जिस तरह कोरोना के दौर में हमने अपने चरम तक पहुँचते देखा, उस की झलक ‘प्लेग’ में नहीं मिली, शायद लेखक का इस ओर ध्यान ही न गया हो या कि उन्हें ऐसा कोई अनुभव ही न मिला हो या हो सकता है कि, लेखक नकारात्मक परिप्रेक्ष्यों को छोड़ देना चाहते हों!
कहा जाता है कि, अल्वेयर कामू ने ‘प्लेग’ के लिए बहुत अध्ययन किया था और ओरान शहर को पहले भी महामारियों ने अपना निवाला बनाया था, जिसके निशान भी इस किताब में होंगे, लेकिन हमें ये आज की कहानी लगती है। प्लेग के माध्यम से डाॅक्टर बर्नार्ड रियो के रूप में एक आदर्श चिकित्सक का चरित्र हमारे सामने रखा गया है, जो व्यवस्था को चुनौती देता है, अपनी व्यावसायिक ज़िम्मेदारियों को अपने व्यक्तिगत जीवन की परेशानियों से ऊपर रखते हुए वह पूरी शिद्दत से जूझता है लेकिन कभी निराश नहीं दिखता। किताब में सभी चरित्र अपनी-अपनी विशेषताएं, आकांक्षाएं, लक्ष्य और मनोदशाएं लिए हैं, लेकिन प्लेग से उपजे हालातों ने सभी को मजबूर कर दिया है, जिससे उनके व्यवहार बदलते लगते हैं , ये बदले चरित्र ही पाठक के मन में कौतूहल पैदा करते हैं। इस किताब को पढ़ते हुए, शुरू में ही ओरान शहर का चित्र आंखों में खिंच जाता है और फिर धीरे-धीरे प्लेग से जूझते बदनों पर उभरती गिल्टियों, फैलते बुखार और खून की उल्टियों से सना ओरान का चित्र डराने लगता है। लम्बे संघर्ष के बाद एक बार लगने लगता है कि, प्लेग ख़त्म हो रहा है, चूहे फिर से गलियों में दौड़ने लगे हैं, उम्मीदें हिलौरे मारने लगी हैं, लोग रोशन सड़कों पर चहलकदमी करने लगे हैं, लेकिन ठीक तभी कथानक का एक मजबूत स्तम्भ प्लेग से ढह जाता है, ‘तारो’। प्लेग फिर से नये रूप में सामने आता है।
उधर, लौटते प्लेग की खुशी में शहर झूम रहा है, लेकिन वह यह नहीं जानता कि, प्लेग का कीटाणु मरता नहीं है, वह छिपा रहता है तहखानों में, सन्दूकों में, किताबों में किसी मौके की तलाश में- ऐसा मानना है डाॅ0 बर्नार्ड रियो का!
इससे ज़्यादा जानना है तो किताब पढ़िए..........प्लेग!
सुनीता मोहन