शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2012

आज की बात


जीवन में हमें संतुष्टि कभी मिलती है?
हम सभी मोह-माया के संजाल में ऐसे जकड़े हुए हैं, की उससे बाहर निकल ही नहीं पाते। एक तृप्ति पूर्ण होते ही दूसरी अभिलाषा जोर मारने लगती है। अपनी इच्छाओं के वशीभूत हम इंसान सिर्फ कठपुतली की तरह हिचकोले खाते हुए एक दिन इस दुनिया से अपनी कई अधूरी ख्वाहिशों के साथ विदा हो जाते हैं। ये इच्छाएं और हमारी विषय-कामना ये सब उस शेर की तरह हैं, जिस पर यदि हम सवार होकर उसे नियंत्रित न करें तो समय से पहले ही हमारी इहलीला की इतिश्री निश्चित है। प्रतिपल द्वेष, लालच, ईर्ष्या और क्रोधाग्नि हमारे शरीर को रोगों का घर बनाने के लिए ईंट-गारे का काम करते हैं और उस पर, जो हमारे पास है, उसके प्रति असंतुष्टि का भाव हमारे मस्तिष्क को ठोकता-पीटता रहता है, जिस कारण हम तन के साथ ही मन से भी निरोगी नहीं रह पाते और रोगी व्यक्ति दीर्घायु कैसे हो सकता है?अपनी इच्छाओं - अभिलाषाओं का दमन न कर हम खुद इनके द्वारा कुचले जाते रहते हैं और हमे इसका एहसास तब तक नहीं होता जब तक की हम स्वयं अनिष्ट को अपनी तरफ आता नही देखते...........आश्चर्य तो तब होता है जब इन सब बातों से भिज्ञ और भद्र व्यक्ति भी मौके-बे-मौके विचारोत्तेजित हो जाता है, स्वयं से नियंत्रण खो बैठता है और वही व्यवहार कर डालता है जो वांछित के प्रतिकूल हो! तो कैसे एक सामान्य व्यक्ति खुद को पूर्ण आयु के साथ सुखी जीवन जिलाए?

अपने बचपन के दिनों से ही मैंने अपने आसपास के समाज में सदा तनाव का वातावरण पाया, उसका मेरे मन-मस्तिष्क पर नकारात्मक प्रभाव रहा, किन्तु मेरे पारिवारिक माहौल ने मुझमे सामाजिकता का बीज बोया था, और उस बीज ने मेरी बढती वय के साथ - साथ थोडा-बहुत आकार ग्रहण किया जिसकी छाया से आज मै कई तरह के कष्टों की धूप से बच पाती हूँ लेकिन क्रोध-द्वेष-लालच के पंजों से मैं खुद को सदैव बचा पाऊं, इतनी गुण संपन्न मै कभी न हो सकी। किन्तु जैसा मैंने ऊपर कहा की हम तब तक नहीं चेतते जब तक अनिष्ट को अपने निकट आते नहीं देखते, इसलिए आज जब मै यह महसूस करने लगी हूँ, की मेरा शरीर मेरी आयु से अधिक बूढा हो गया है, मैने खुद को समेटने की कोशिश शुरू कर दी है. कितनी सफल हो पाउंगी यह तो मेरी दृढ़ता पर निर्भर रहेगा, किन्तु मैं समझती हूँ की अच्छे साहित्य का अध्ययन और अंतर्मनन ये दोनों ही क्रियाएं (योग जो सर्वोत्तम है, को अपने जीवन का हिस्सा बनाना मुझे कभी आ सकेगा इस पर मुझे संशय है) मेरे इस निश्चय में मेरे लिए सहायक सिद्ध होंगी.
आमीन!

सोमवार, 13 फ़रवरी 2012

रत्नों की खान का ग़ुम हो जाना..............

अक्सर ऐसा क्यूँ होता है की इंसान के चले जाने के बाद ही उसके बारे में ज्यादा जानने को मिलता है, ..............(मीडिया भी तभी सक्रिय होता है.)
 विद्या सागर नौटियाल जी के बारे में काफी कुछ सुना था, उनकी कृतियाँ-उनके साहित्य की प्रशंसा, उनका राजनैतिक योगदान, उनकी वामपंथी विचारधारा के बारे में गाहे-ब-गाहे  पढने-सुनने को मिलता रहता था, ऐसे मौकों पर उन्हें साक्षात देखने की प्रबल इच्छा होती, पर समय ने कहाँ  किसी की राह देखी  है, अब ये कभी संभव न हो सकेगा!
कल अचानक उनके चले जाने की खबर से झटका लगा, लगा की उत्तराखंड का एक और हीरा सदा के लिए खो गया मगर आज जब अखबारों में ब्लोगों में उनके बारे में इतना कुछ पढ़ा तो मालूम हुआ की एक हीरा नहीं रत्नों की खान ही खो गयी है, ऐसा ही दुःख गिर्दा के जाने पर भी महसूस हुआ था..................!! 


गुरुवार, 9 फ़रवरी 2012

'अतिक्रमण'

atikraman........
जैसे जैसे कस्बों का शहरीकरण होता जाता है, खेती की जमीनें तो ख़त्म हो ही जाती हैं, रिहायशी जमीने भी कम पड़ने लगती हैं और शुरू होने लगता है भूमाफियाओं का खेल, जिसमे छोटे-बड़े कई खिलाडी चांदी काटते हैं और फिर इन शहरों में बस्तियों के अवैध तरीकों से बसने और फिर उनके अतिक्रमण की ज़द में आने के कारन उजड़ने की एक दर्दनाक प्रक्रिया जैसे आम होने लगती हैं इस दर्द को रामदीन से बेहतर कौन समझ सकता था? आठवीं पास रामदीन उन्नीस बरस का ही था, जब एक अदद नौकरी की तलाश में शहर चला आया था, लेकिन नौकरी का पता था और ही भविष्य का, बस सभी तो पहाड़ से मैदान की ओर चले आते थे और अपने पीछे छोड़े परिवार के पास जब कभी मिलने आते तो पूरा गाँव उन्हें सिर-आंखों पे बिठाता, शायद ये ही दिखावा उसे गाँव से शहर खींच लाया था पहाड़ों में जीवन कठिन था, मगर शहर की तरह दम घोटूं नहीं, पर रामदीन को शहरी मरीचिका कदर खींच रही थी की वो शादी वाले बरस ही sअपने खेत-बैल-घर सब कुछ बेचकर कभी लौटकर आने के इरादे से सपत्नीक गाँव की दहलीज़ पार कर गया और वाकई वह कभी लौट कर नहीं पाया, चाह कर भी नहीं!..........

शनिवार, 4 फ़रवरी 2012

वो हंसी ही है!!

दर्द-ओ-ग़म जो भुला दे
वो हंसी ही है
वो हंसी ही है
जो खजाना है ख़ुशी का
फैलती छूत सी जो
वो हंसी ही है

भूल जा दर्द दिल के
गा न अब ग़म के तराने
खोज ले आज
खिलखिलाने के बहाने
हम
हँसे तो साथ में जो भी हो
वो भी हंसेगा
और
हंसी का कारवां
बढ़ता रहेगा

हैं
हंसी में खुशबुएँ गुलशन की सारी
है हंसी में स्वाद सारे व्यंजनों का
इक हंसी जो मुफ्त में मिलती है हमको
काट सकती है ये सारे रोग तन के

ज़िन्दगी
जितनी भी हो
वो
कम ही कम है
इसलिए
दो-चार दिन हंस ले हंसा ले !!!!!