शनिवार, 21 जनवरी 2012

माँ जब भी मुझे बुलाती है .................!

माँ जब भी मुझे बुलाती है .................
बस सबसे छुपके, चुपके से
अंखियों से नीर बहाती हूँ
लाचार नहीं मैं फिर भी यूँ
बेचारी हो रह जाती हूँ
दिल को कितना ही कड़ा करूँ
ये मन ही मन घुलता रहता
हो मोम का जैसे बुत कोई
जलता रहता- गलता रहता
सब भूल भी जाऊं मैं लेकिन
माँ का अर्पण कैसे भूलूं
माँ के आगे- पीछे बीते
उस बचपन को कैसे भूलूं
अब बात नहीं मेरे बस में
मै टुकड़े- टुकड़े टूट चुकी
तेरी ममता के हिस्से के
टुकड़े को मैं खुद लूट चुकी
खुशियों की बस्ती में रहकर
बस यादों से घबराती हूँ
कितने द्वंदों- प्रतिद्वंदों की
लपटों में मैं घिर जाती हूँ
माँ जब भी मुझे बुलाती है .................

मंगलवार, 10 जनवरी 2012

जब भी झाँका है तेरी इन डूबती आँखों में कभी
हर बखत एक ही मंजर नज़र आया है मुझे
इक शहर हो कोई उजड़ा जैसे
हो उदासी का बसर तनहा जैसे
एक वीरानगी का आलम है तेरी आँखों में
कैसा अवारापन है तेरी आँखों में
खुद को किस बोझ तले दफनाया तूने
अपने अरमानों को क्यूँकर जलाया तूने
क्यूँ नहीं ज़िन्दगी को कोई रंग देती
क्यूँ भला खुद को भुलाया तूने
क्यूँ पकड़ रखा है तूने बीते कल का आँचल
गौर से देख तेरे पास 'आज' आया है..................!!!